अर्जुन उवाच। दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥28॥
अर्जुन:-उवाच-अर्जुन ने कहा; दृष्ट्वा-देख कर; इमम् इन सबको; स्वजनम् वंशजों को; कृष्ण-कृष्ण; युयुत्सुम-युद्ध लड़ने की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम्-उपस्थित; सीदन्ति–काँप रहे हैं; मम-मेरे; गात्रणि-अंग; मुखम्-मुँह; च-भी; परिशुष्यति-सूख रहा है।
BG 1.28: अर्जुन ने कहा! हे कृष्ण! युद्ध करने की इच्छा से तथा एक दूसरे का वध करने के लिए यहाँ अपने वंशजों को देखकर मेरे शरीर के अंग कांप रहे हैं और मेरा मुंह सूख रहा है।
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आसक्ति लौकिक या आध्यात्मिक हो सकती है। किसी संबंधी के लिए मोह-होना सांसारिक आसक्ति है जो दैहिक संकल्पना के कारण उत्पन्न होती है। स्वयं को शरीर समझने पर दैहिक संबंधियों में आसक्ति हो जाती है। अज्ञानता से उत्पन्न यह आसक्ति हमें घोर सांसारिक बना देती है। अन्ततोगत्वा इस आसक्ति का अंत भी दुखदायी होता है क्योंकि शरीर का अंत होने पर पारिवारिक संबंध भी समाप्त हो जाता है। दूसरी ओर परम पिता परमात्मा हमारी आत्मा के सच्चे पिता, माता, सखा, स्वामी और प्रियतम हैं। इसलिए आत्मा के स्तर पर भगवान में अनुरक्त होना आध्यात्मिक आसक्ति है जो हमारी चेतना का विकास है और हमारी बुद्धि को प्रकाशित करता है। भगवान के प्रति प्रेम एक महासागर की तरह है जिसकी व्यापकता में सब कुछ समा जाता है जबकि दैहिक संबंध अपूर्ण और स्वार्थयुक्त पूर्ण होते हैं। यहाँ अर्जुन सांसारिक मोह का अनुभव कर रहा था जिसने उसे शोक के महासागर में डुबो दिया और वह अपने कर्तव्य पालन के विचार से कांपने लगा।